
इस शनिवार की सुबह आम शनिवार की सुबह से कुछ अलग थी। अलार्म के बजने पर जब आँख खुली, तो एहसास हुआ कि कुछ ठीक नहीं है। आँख में कुछ चुभन सी है। मन में एक भय सा समा गया। जल्दी से उठ कर शीशे में खुद को देखा, तो एक पल क लिए मन ठहर गया। आँखों में छाई लालिमा से यह निश्चित हो गया की शक सही था। आज कल फैले हुए कंजंक्टिवाइटिस की बिमारी ने दस्तक दे दी है।
“अब यह एक और मुसीबत हो गई , कैसे काम होगा , और किसी को न हो जाए “, मन हमेशा कि तरह एक ही पल में सब सोच गया।
खैर दिनचर्या आरम्भ हुई। सभी प्रकार की सावधानी का ध्यान रखा जाने लगा। ऐसा लग रहा था कि मानो घर में कोई जाल बिछा है।
हर कदम पर मन में यही विचार था , हाथ धोया या नहीं, आँख को हाथ तो नहीं लगाया। बच्चो को नए नियम समझाए गए। बच्चो के लिए तो मानो एक ख़ुशी की लहार थी। “मम्मी बाहर मत आना आप, सब अंदर दे देंगे। आप बस अपना ध्यान रखो। “, एकदम ही संस्कार जाग उठे। पर इनके पीछे जो ख़ुशी थी कि एक-दो दिन थोड़ा तो रोक-टोक से बचे रहेंगे, वह खूब झलक रही थी।
आम तौर पर बीमार व्यक्ति बिमारी के दर्द और मुश्किल से परेशान हो जाता है। पर ऐसी बिमारी में नियमों का पालन आपको अपनी रोज़मर्रा के जीवन कि आज़ादी के सुख का एहसास दिलाता है।
जब हर कदम पर आपको अपनी हद के बारे में सोचना पड़े तो वाकई हर कदम मुश्किल लगता है। कहीं भी घूमने की , मनचाहे तरीके से रहने की आज़ादी की अहमियत को हम आमतौर पर नज़र अंदाज़ कर देते हैं। पर जब इसी आज़ादी पर कोई मामूली सी रोक टोक लगती है, तब समझ आता है की यह बहुत अहम् है। मैंने जैसे ही अपने भाव पतिदेव के सामने रखे तो यकायक वह बोल पड़े
कही भली है कटुक निबोरी ,
कनक कटोरी की मैदा से।
चाहे मुझे हर आराम मिल रहा था, खाना भी कमरे में मिल रहा था। पर जब मन चाहे तो रसोई से कुछ ले लेने का सुख थोड़ा अलग ही होता है। बच्चो के पीछे भागकर उनको पढ़ने बिठाने की असमर्थता मानो खीजा रही थी मुझे।
वैसे हमेशा मन करता है कोई लाकर खाना दे दे तो अच्छा हो , कुछ काम न करना पड़े तो अच्छा हो। पर जब मन को यह एहसास होता है कि वह नियमों से बंधा हुआ है तो वही मनोकामना बुरी लगने लगती है।
खैर, बिमारी तो इतनी बड़ी नहीं, ३-४ दिन में ठीक हो जायेगी, पर अपनी प्रतिदिन की आज़ादी के मायने ज़रूर समझ आ गए।
You must log in to post a comment.