बसंत के इस मौसम में चारों ओर रंग बिखरे हुए हैं। घर की बालकनी से बाहर देखो तो हर ओर बसंत की छाप झलकती हैं। लाल रंग में लिप्त यह पेड़ विशेष आकर्षित करता है। यह पेड़ निरंतर होते बदलाव की एक बुलंद मिशाल पेश करता है।  कुछ ही समय पहले यह पेड़ हरे पत्तो से ढका हुआ था। उस हरे रंग को लालिमा में प्रवर्तित होने में बस मानो कुछ ही दिन लगे हैं। और यह लाल रंग भी इसने ठहरने के लिए नहीं ओढ़ा है। बस कुछ दिन की ही बात जब यह एक साख मात्र सा दिखने लगेगा।

प्रकृति अपने अनूठे अंदाज में हमें नियमित एवं निरंतर हो रहे बदलाव का सच दिखाती रहती है। मनुष्य यूँ तो प्रकृति का हमसफर कहा जाता है। पर जब अपने इस दोस्त से कुछ सीखने की बात आती है तो वह कहीं कच्चा है। चारों तरफ निरंतर हो रहे बदलाव को देखते हुए भी हम कल्पना करते हैं की हमारा जीवन ज्यूँ का त्यूँ चलता रहेगा। हम किसी भी बदलाव से मुँह छिपाते है। किसी प्रकार के बदलाव का आभास ही हमें चिड़चिड़ा बना देता है या हम घबरा जाते हैं। खासकर यदि बदलाव हमारे अनुरूप न हो तब।

यह बात केवल जीवन में होने वाले बड़े हेरफेर पर ही लागू नहीं होती है।  रोज़मर्रा के जीवन में भी यदि कुछ इधर उधर होता है तो हम खीज उठते हैं।  जो जहां है सब वही और वैसा ही चाहिये।  हम अक्सर सभी कुछ अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं।  अनचाहा बदलाव कहीं न कहीं हमारे इस नियंत्रण को चुनौती देता है। हम अपने खोते हुए नियंत्रण को देखकर छटपटा से जाते हैं।  हम बहुत कोशिश करते हैं उस बदलाब को नकारने की। परन्तु हम चाहे कितना ही खुद का दम्भ भर लें, प्रकृति और जीवन के सत्य के सामने कहीं तो छोटे पड़ ही जाते हैं।

और देखा जाए तो कौन सा परिवर्तन अच्छा है और क्या बुरा, हमारी यह परख भी सिमित हैं। अधिकतर जो हमारी चाह के अनुरूप होता है उसे हम अच्छा मान लेते हैं। बाकी सब हमारी मानसिक शांति को भांग करता है। ऐसे में हमें यह कहावत याद रखनी चाहिए।

                 मन का हो तो अच्छा, मन का ना हो तो और भी अच्छा

जीवन में हुई उथल पुथल अक्सर हमारा दिल छोटा कर देती है। पर इस पेड़ ने यदि साख बन जाने के बाद दिल छोटा कर उस बदलाव को कोसने में ही पूरा साल निकाल दिया होता, तो क्या यह फिर इस साल नए पत्ते और फूल बिखेर पाता? यह विश्वास की जो आज कुछ अधूरा है , मेहनत और प्रयास से वह पूर्ण हो सकता है, यही हमें आगे बढ़ने के लिए बलिष्ट रखता है। और साथ ही यह ध्यान भी रहे की जो आज खिला हुआ, सुंदर है ; वह भी स्थाई नहीं है।

अक्सर बदलाव इतना कष्टदाई नहीं होता।  पर जब हम उस बदलाव को नकारने में अपना मन लगा देते हैं , तो हम ज्यादा दुखी और खिन्न हो जाते हैं। “मेरे साथ ही क्यों”, “यह कैसे हो सकता है “, “पर मैंने तो ऐसा चाहा था”, यह सवाल हमें उलझाए रखते है। इसकी बजाय यदि बदलते हालात को समझा जाए और उसकी तैयारी की जाए तो हमें कम असहजता होगी।

ऐसे में परिवर्तन से लड़ाई में अपना समय एवं ताकत नष्ट न कर यदि हम कुछ सूत्र बना लें तो अधिक सुचारु रूप से जीवन के बदलते स्वरुप का आनंद ले पाएंगे।

  • यह समझ लें की बदलाव जीवन का सत्य है। इस सत्य को अपनाने से हम अधिक जागरूक और सजग रहते है। हम आने वाले बदलाव का पहले से अनुमान लगा पाते हैं।
  • यदि हमारी मनः स्थिति बदलाव के लिए तैयार है तो हमें उसके अनुरूप ढलने में आसानी होगी।
  • प्रगति से पनपा हुआ अहम् हमें सब कुछ नियंत्रित करने के लिए उकसाता है। ऐसे में दिनचर्या में ऐसे कुछ नियम रखने चाहिए जो हमें इस अहम् के परे का सत्य दिखाए। प्रार्थना, डायरी लिखना, किसी ऐसे मित्र/परिवार जन से नियमित बातचीत करना जो आपको सच कहने में हिचकता न हो; यह कुछ ऐसे काम है जो हमें स्वयं से परे ले जाकर जीवन का पूर्ण स्वरुप दिखाते हैं। 
  • जीवन में आने वाले कष्टदाई समय में अपनों का साथ बहुत मददगार रहता है।  हम चाहे अपना कष्ट किसी को दे न पाए पर उस कष्ट की अभिव्यक्ति हमारे मन को हल्का ज़रूर करती है।

अंत में यही कहना चाहूंगी की सब सही रहे यह कामना करना गलत नहीं है। पर इस कामना को अटल सत्य मान लेना मूर्खता है और कष्टदाई भी। जीवन के वसंत में भी रंग बिखरते हैं।  पर बसंत का आना जैसे एक सच है पतझड़ भी उसी कड़ी का हिस्सा है। सो जिस तरह हम बसंत क लिए प्रफुल्लत रहते हैं , उसी तरह पतझड़ के लिए भी तैयार रहे। फिल्म भूतनाथ के एक गाने के यह शब्द समय के बदलते फेर को सही व्यक्त करते हैं।

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होंसला और नम्रता हमें अच्छे और बुरे दोनों बदलाव को समझने और जीने में मदद करते है।

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