तितली वाला फूल

आज रास्ते में तितली वाला फूल दिख गया,
आखों के सामने कुछ चित्र चलने लगे,
हँसता खिलखिलाता एक चेहरा,
फूल की पत्तियों की सीटी बजाता हुआ ।

दूसरे ही पल स्मृति के वह दृश्य सदृश्य हो उठे,
बच्चों की एक टोली वहाँ से गुजरती थम गई,
एक एक करके फूल की पखुड़िया बज उठी ।

कदम एकाएक उनकी ओर बढ़ने लगे ,
कल्पना से ही मन सातवां शिखर छूने लगा,
पर एक डोर ने मानो खींच लिया,
हाथ पकड़ कर जैसे रोक लिया,
पैर जैसे ज़मीन से चिपक ही गए ।

मन आगे और शरीर पीछे की ओर बढ़ते रहे,
यह कश्मकश कुछ देर चलती रही,
इतने में वहाँ शांति पखर गई,
बच्चों की वह टुकड़ी अपने रास्ते बढ़ गई ।

मैं फूल के पास पहुंची तो मानो वह बोल पड़ा,
आने में क्यों इतनी देर हुई, कहाँ रुक गई,
मैंने कहाँ उम्र और तन की काठी में फस गई थी,
पर मुझे तो आज भी वही दिखती हो, कहकर वो खिल उठा ।

पौधा भी वही है और मैं भी वही हूँ,
फिर क्या है जो बदल गया है,
अकसर मैं सोचती हूँ कि “काश हम बच्चे ही रहते”,
पर किसने उस बच्चे को मुझसे है छीना ।

वह बच्चा आज भी भीतर ही है बैठा,
बस बाहर आने की इज़ाज़त का मोहताज बना,
बाहर उसको आने दूँ, खिलखिलाने दूँ,
फूल से एक सीटी उसे भी बजाने दूँ ।

Pratiksha

Learner for life, from life

This Post Has 2 Comments

  1. बेहद भावपूर्ण लेखन ! निश्चित ही हम सबके के अंदर का बालमन कही खो सा गया है जरूरी है उनके स्व खोज को!

  2. SUMIT Zoon

    हम में प्रकृति, प्रकृति में हम।
    ज़रूरी और सुंदर ख़्याल और स्वस्थ होता लेखन।
    शुभकामनाएँ 🌸