हर किसी को डर सता रहा,पकड़े जाने का ।
कुछ राज़ जो छिपा रखे,उनके खुल जाने का ॥
ज़माने के सामने सब सीधे हैं ,सुलझे हैं ।
पर अंदर बड़ी कश्मकश है ,सभी उलझे हैं ॥

जीतने को हम,उनके मनपसंद बनते हैं ।
पर अंदर बैठे सच से,कहीं डरे रहते हैं ॥
सोचते है कि हम ही,कुछ छिपाएँ बैठे हैं ।
पर हर चमकती हस्ती,कुछ हसरतें दबाये बैठी है ॥

चमकने को,छल हर कोई अपना रहा ।
पर ख़ुद छले जाने का,डर भी सता रहा ॥
क्या ही हो जो,हम अपना सच जी पायें ।
क्या ही हो जो,हम सबका सच अपना पायें ॥

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