आज फिर पापा से बहस हो गई, वजह कुछ खास नहीं थी
एक ओर जीवन का मझा हुआ खिलाड़ी था
दूसरी ओर मेरे अंदर का नया जोश था
जीवन के खेल का मैदान, उसको निभाने की ही बहस थी
ऐसा ही रिश्ता होता है पिता का ,जीवन भर वह आपको नापता है
दुनिया में आपकी चमक देख ,दिल में बहुत हर्षाता है
दुनिया से नज़र बचा कर हम अपनी गलती ढक लेते है
पर पिता की आँखों के सामने सब सच बोल देते है
मुझसे आगे मेरी संतान जाए, यही हर पिता चाहे
पर जब संतान खुद में ही खो जाए, उसे आवाज भी न लगा पाए
जीवन भर मेरी ढाल बने रहे जो पापा, मेरी तकलीफ ने उन आँखों को नम पाया है
कठोर कहे जाने वाले दिल में ममता का बवंडर उठता मैंने देखा है
वो बहुत कुछ कभी न कह पाएंगे, मैं भी शायद सब उन्हें ना बोल पाऊं
पर दुनिया की भीड़ में वो मेरा और मैं उनका सहारा बस बन जाऊं
2 replies on “मैं और पापा”
सुंदर भावपूर्ण रचना 👌🏼👌🏼
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मर्मस्पर्शी
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