बड़ा हुआ तो गुलाम हुआ

काठ का वो पालना लगता तब छोटा था
सफलता की यह कुर्सी लगती ऊँची है
पर उस पालने में रोने हसने की छूट थी
इस कुर्सी पर जकड़े अपना ही दम्भ है

छोटा सा वो गुल्लक,सिमित सा उसका आकार
अब असीमित बैंक बैलेंस, अनंत उसका विस्तार
पर उस थोड़े में धन्य होने का भाव था
इस अनंत में कुछ कमी और अभाव है

सिमित था ज्ञान, बहुत कुछ जानना था बाकी
अब हम सर्वज्ञ, जान गए जो शायद है भी नहीं
वो जानने की लालसा और जानकार होना अस्मित
अब जानने का अहम् बना रहा हमें सिमित

जो स्वछन्द होने में भरपूर सक्षम है
वो स्वयं की कुंठा और दोषदर्शन से बना अक्षम है
कहीं पहुँचने की चाह में चला जाता है
और इक दिन उसी काठ पर लेट जाता है

उम्र के साथ बढ़ता ज़रूर आकार है
पर दिल तो अभी भी ढूंढ रहा प्यार है
एक अजब से होड़ में हम लगे हुए हैं
ज़िन्दगी बच्चो को खेल नहीं ये समझे हुए हैं

Pratiksha

Learner for life, from life

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